भारत के सुप्रीम कोर्ट में 'न्याय की देवी' की नई प्रतिमा लगाई गई, जिसके एक हाथ में तराजू और दूसरे हाथ में संविधान की पुस्तक है. जजों के पुस्तकालय में लगाई गयी छह फुट ऊंची इस प्रतिमा के हाथ में तलवार नहीं है. सफेद पारंपरिक पोशाक पहने न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी और हाथ में तलवार नहीं है. हालांकि, सिर पर मुकुट सजाया गया है.


सीनियर एडवोकेट राकेश द्विवेदी ने बताया कि इस बदलाव से न्याय देने के तरीके में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं आया है. राकेश द्विवेदी ने न्यूज एजेंसी पीटीआई-भाषा से कहा, 'न्याय की देवी की इस प्रतिमा में बदलाव करने से कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं आया है. आंखों पर पट्टी का मतलब यह नहीं था कि आंख बंद करके न्याय दिया जाता था. इसका वास्तव में मतलब पक्षपात और पूर्वाग्रहों के प्रति अंधापन था. अब देवी की आंखों पर पट्टी नहीं है. इसका मतलब अब भी यह है कि न्यायाधीशों को दुनिया और देश को देखना चाहिए लेकिन उन्हें बुराइयों के आगे नहीं झुकना चाहिए.'


वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायणन ने नई प्रतिमा की भारतीयता की सराहना करते हुए कहा कि आंखों पर से पट्टी हटाने के पीछे का विचार देखना दिलचस्प होगा. इसके बारे में भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने पहले कहा था कि इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि कानून अंधा होता है.


एडवोकेट शंकरनारायण ने कहा, 'पहले ऐसा कहा जाता रहा है कि कानून अंधा है क्योंकि मूर्ति पर पट्टी बंधी होती थी, जबकि पट्टी बांधे जाने का मतलब यह होता है कि बिना किसी का स्टेटस देखे न्याय निष्पक्ष तरीके से काम करता है.' उन्होंने आगे यह भी कहा कि पहले जो मूर्ति लगाई गई थी, जिसकी आंखों पर पट्टी बंधी होती थी, उसका भारत के साथ कनेक्शन नजर नहीं आता था. अब जिस मूर्ति को लगाया गया है, उसमें न्याय की देवी को लंबे बाल और सिर पर ताज पहने दिखाया गया है, जो भारत की छवि को दर्शाता है.


कानून के जानकार और जाने-माने सीनियर एडवोकेट विकास पाहवा ने कहा कि न्याय की देवी के हाथ में तलवार के बजाय संविधान की किताब का होना बताता है कि न्याय सर्वोच्च कानून पर आधारित है न कि किसी दबाव या दंड पर. 


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